शाहिद कपूर की मोस्ट अवेटेड फ़िल्म 'देवा' का रिव्यू: मनोरंजक कहानी के बावजूद थोड़ी अनुमानित

शाहिद कपूर की मोस्ट अवेटेड फ़िल्म 'देवा' का रिव्यू: मनोरंजक कहानी के बावजूद थोड़ी अनुमानित
के द्वारा प्रकाशित किया गया Manish Patel 1 फ़रवरी 2025 7 टिप्पणि

फिल्म 'देवा' की कहानी का परिचय

रोश्शन एंड्र्यूज द्वारा निर्देशित नई फिल्म 'देवा' में शाहिद कपूर मुख्य भूमिका में हैं। उनके साथ पूजा हेगड़े, पवैल गुलाटी और कुव्रेत सैत भी महत्वपूर्ण किरदारों में नजर आते हैं। यह कहानी देव अम्ब्रे नामक एक पुलिस इंस्पेक्टर की है, जिसका जीवन अपने सबसे अच्छे दोस्त और साथी एसीपी रोहन डी'सिल्वा की दुखद मौत के बाद उल्टा हो जाता है। यह फ़िल्म देव के व्यक्तिगत जीवन और प्रोफेशनल जिम्मेदारियों के टकराव को दर्शाती है। फिल्म का सबसे बड़ा तत्व इसके नैतिक प्रश्न और व्यक्ति के दृष्टिकोण को लेकर हैं।

प्रारंभिक फ़्लैशबैक और कथा की शुरुआत

फिल्म की शुरुआत एक फ्लैशबैक से होती है, जहाँ देव एक बड़ा केस सुलझाते हैं, लेकिन एक दुर्घटना के कारण उनकी याददाश्त खो जाती है। देव के डॉक्टर और उनके वरिष्ठ अधिकारी फरहान को इस बात की जानकारी होती है। दुर्घटना से पहले देव ने फरहान को बताया था कि उन्होंने केस का समाधान कर लिया है। देव अपने निडर और क्रूर कानून-प्रवर्तन के लिए जाने जाते हैं, जो अक्सर प्रश्न उठाता है कि वे पुलिस अधिकारी हैं या माफिया।

देव का 'गैंगस्टर' को पकड़ने का मिशन

मुख्य कहानी देव की उस जांच पर आधारित है जिसमें वे मुंबई के एक गैंगस्टर को पकड़ने की कोशिश कर रहे हैं। पुलिस विभाग को शक है कि कोई अंदरूनी व्यक्ति अपराधियों की मदद कर रहा है। इसी दौरान देव के दोस्त रोहन की हत्या हो जाती है, जिससे देव अलावा तक पीछा नहीं छोड़ पाते। परन्तु जल्द ही वे दुर्घटना का सामना करते हैं, और अपनी याददाश्त खो बैठते हैं।

याददाश्त खोने के बाद की चुनौतियाँ और नई राह

याददाश्त खोने के बाद देव को रोहन के हत्या के केस को फिर से सौंपा जाता है। जैसे-जैसे वे गहराई में जाते हैं, वे सबूतों को खोजने लगते हैं और आखिरकार अपराधी की पहचान कर लेते हैं, जो न केवल उन्हें बल्कि दर्शकों को भी चौंकाता है।

शाहिद कपूर का यादगार प्रदर्शन

शाहिद कपूर का यादगार प्रदर्शन

शाहिद कपूर के द्वारा प्रस्तुत किया गया प्रदर्शन बेशक फिल्म का प्रमुख आकर्षण है। उनका अभिनय न केवल जलवाब देता है, बल्कि दर्शकों को बांधे रखने में सक्षम है। उनके किरदार की साहसी शैली और कानून के प्रति अदम्य दृष्टिकोण दर्शकों को सोचने पर मजबूर कर देता है। हालांकि, हम यह भी देख सकते हैं कि कहानी कुछ पूर्वानुमानित स्थितियों में पड़ जाती है, जो दर्शकों के इंट्रेस्ट को थोड़ा कम कर सकती है।

अन्य किरदारों की भूमिका और प्रस्तुति

फिल्म में पूजा हेगड़े और कुव्रेत सैत जैसे सहायक कलाकार भी हैं, जिनकी भूमिका का भरपूर उपयोग नहीं हो पाया है। ऐसा लगता है कि लेखक ने इन्हें बरतने में थोड़ी कमी बरती है। यद्यपि इनकी अदाकारी ठीक-ठाक देखने को मिलती है, लेकिन उनके पात्रों में गहराई और विकास की कमी स्पष्ट नजर आती है। दर्शकों का ध्यान खींचने के लिए यह एक महत्वपूर्ण मामला है जो फिल्म निर्माताओं को देखना चाहिए था।

मुंबई की खूबसूरत दृश्यपृष्ठभूमि

फिल्म की दृश्यपृष्ठभूमि के रूप में मुंबई के शहरी दृश्य महत्वपूर्ण हैं। शहर के सौंदर्य को इसके प्रसिद्ध स्थलों से अलग रख कर दिखाया गया है, जो कहानी में वास्तविकता और स्थानीय तत्व जोड़ता है। यहां तक कि बिना बड़े-बड़े स्मारकों के बिना भी, इसने मुंबई के जीवन और हलचल को प्रभावशाली ढंग से चित्रित किया है।

फिल्म की कुछ खामियाँ और जटिलताएँ

हालांकि, फिल्म आलोचकों द्वारा उसकी जटिलताओं के लिए कुछ आलोचना सहन करती है, विशेष रूप से इसके दूसरे भाग में। यहां कहानी कुछ अनुचित मोड़ों और स्थानांतरणों के साथ थोड़ी उलझन में पड़ जाती है। साथ ही, महिला पात्रों की गहराई की कमी भी देखी गई है जो फिल्म की दूसरी बडी कमी मानी जाती है।

आलोचक और दर्शकों की प्रतिक्रियाएँ

आलोचक और दर्शकों की प्रतिक्रियाएँ

'देवा' पर प्रतिक्रिया मिश्रित रही है। जहां एक ओर शाहिद कपूर के अभिनय की प्रशंसा की गई है, वहीं कहानी की स्पष्टता और मूलता की कमी के कारण इसे आलोचना का सामना करना पड़ा है। फिल्म के एक्शन दृश्य भले ही विशिष्ट और मनोरंजक बने हों, लेकिन कहानी की कमी और मोड़ों की पूर्वानुमानितता के कारण यह कुछ दर्शकों के लिए निराशाजनक रही है।

फिल्म की आलोचना जाहिर तौर पर हमें एक संदेश देता है कि स्क्रिप्ट का महत्त्व हमेशा से साथ में रहता है। इसलिए, परिणीत दर्शकों को एक मौलिक और संरचित कहानी की उम्मीद होती है, जो उन्हें अद्वितीय अनुभव दे सके।

7 टिप्पणि

  • Image placeholder

    Sreeramana Aithal

    फ़रवरी 1, 2025 AT 06:53

    सच्चाई को बख़ूबी उभारे हुए कहा गया है, लेकिन फ़िल्म में नैतिक दुविधा को सौंदर्य के पीछे छुपाने की कोशिश 🙄। शाहिद कपूर का किरदार 'कानून का पालन' की तरह दिखता है, पर असल में वह माफिया के समान है, जो दर्शकों को ग़लत विचार देता है। कहानी में दोहरावदार मोड़ और अनुमानित संवाद दर्शाते हैं कि लेखक ने रचनात्मक जोखिम नहीं लिया। यदि फिल्म में सामाजिक दायित्व को आवाज़ देना होता, तो यह और भी महत्त्वपूर्ण बन सकता था। अंततः, यह फ़िल्म शैली की सीमाओं को तोड़ने में विफल रह गई, और दर्शकों को उसी पुराने ढ़ांचे में रख दिया। 😊

  • Image placeholder

    Abhishek Sachdeva

    फ़रवरी 1, 2025 AT 09:06

    बिलकुल बकवास! यह फ़िल्म न सिर्फ़ ख़राब लिखी गई है, बल्कि पूरी कहानी में खोखले क्लिशे बिखरे हैं। निर्देशक को चाहिए था कि वह जोखिम ले और कुछ नया करे, लेकिन उन्होंने बस वही पुरानी रूटीन दोहराई। यदि आप सोचते हैं कि यह मनोरंजक है, तो आपका स्वाद भी दुरुपयोगी है।

  • Image placeholder

    Janki Mistry

    फ़रवरी 1, 2025 AT 11:20

    फ़िल्म की नरेटिव स्ट्रक्चर में प्लॉट वैरिएशन नहीं है; स्क्रीनप्ले बेसिक है

  • Image placeholder

    Akshay Vats

    फ़रवरी 1, 2025 AT 13:33

    देखो, एनी फ़िल्म में अशुद्धि है, कई सीन में भावनात्मक गहराई नहीं दिखी, और भाषा में भी बहुत सारी गलतियों हैं। मसला यही है कि डायरेक्टर ने असली मुद्दे से हटकर एंटरटेनमेंट पर फोकस किया, जो दर्शकों को धोखा देता है।

  • Image placeholder

    Anusree Nair

    फ़रवरी 1, 2025 AT 15:46

    भले ही कहानी कुछ हद तक अनुमानित लगी, फिर भी फ़िल्म ने मुंबई की जीवंत झलक पेश की, जो देखनै वाले को ऊर्जा देती है। राजिंग फ़िल्टर के साथ आप उत्साहित रह सकते हैं और फ़िल्म की एction का मज़ा ले सकते हैं।

  • Image placeholder

    Bhavna Joshi

    फ़रवरी 1, 2025 AT 18:00

    देवा को देखते हुए हमें यह समझना चाहिए कि फ़िल्म केवल एक एंटरटेनमेंट पैकेज नहीं, बल्कि सामाजिक मनोविज्ञान की जाँच भी है। प्रथम दृश्य में मुख्य नायक द्वारा याददाश्त खोना, यह एक रूपक है कि आधुनिक इंसान अपने मूल मूल्यों को भुला रहा है। जब वह अपने दोस्त की मौत का बदला लेने की ज्वाला में जलता है, तो वह नैतिक दुविधा का सामना करता है, जहाँ व्यक्तिगत न्याय बनाम सार्वजनिक व्यवस्था का टकराव स्पष्ट होता है। यह द्वंद्वविचार दर्शकों को आत्मनिरीक्षण के लिए प्रेरित करता है, जिससे वह अपने जीवन में न्याय और कर्तव्य के बीच संतुलन खोज सके। याददाश्त की हानि को एक वाक्यांश में कहा जा सकता है: 'भूल के बाद पुनर्जन्म'। इस पुनर्जन्म में नायक को नई पहचान बनानी पड़ती है, जो दर्शाती है कि पहचान केवल सामाजिक लेबल नहीं, बल्कि आत्म-स्वीकृति पर आधारित है। फ़िल्म में प्रस्तुत पुलिस कार्यवाही, यदि हम सूक्ष्मता से देखें, तो यह वास्तविक दुनिया के न्याय प्रणाली की जटिलताओं को प्रतिबिंबित करती है। इस संदर्भ में, कहानी की अनुमानितता एक दोधारी तलवार है; यह दर्शकों को परिचित बनाती है, पर साथ ही अपेक्षाओं को भी सीमित करती है। हालांकि, यदि हम इसे एक कला के रूप में देखें, तो अनुमानित मोड़ भी एक शैलीगत चयन हो सकता है, जिसका उद्देश्य निरंतर तनाव बनाये रखना है। फिल्म के साथ साथ, मुंबई का बैकग्राउंड एक जीवंत सामाजिक तंत्र के रूप में कार्य करता है, जहाँ वर्गीय अंतर, आर्थिक संघर्ष और सांस्कृतिक मिश्रण स्पष्ट रूप से व्यक्त होते हैं। इस विविधता को समझने के लिए दर्शक को अपना दृष्टिकोण विस्तारित करना चाहिए, न कि सिर्फ़ एक्शन सीक्वेंस में खो जाना चाहिए। इसलिए, फ़िल्म ने जो नैतिक प्रश्न उठाए हैं, वह केवल कथा के बंधन तक सीमित नहीं है; वे हमारे रोज़मर्रा के निर्णयों को भी प्रश्नवाचक बनाते हैं। अंत में, यह कहा जा सकता है कि 'देवा' एक आध्यात्मिक खोज की फ्रेमवर्क प्रदान करती है, जो दर्शकों को अपनी आंतरिक शक्ति और नैतिक दायित्व का पुनर्मूल्यांकन करने का अवसर देती है। यह विश्लेषण दर्शकों को न केवल फ़िल्म की सराहना करने में मदद करता है, बल्कि उनके व्यक्तिगत विकास में भी योगदान देता है।

  • Image placeholder

    Ashwini Belliganoor

    फ़रवरी 1, 2025 AT 20:13

    फ़िल्म कुल मिलाकर मध्यवर्ती स्तर की है लेकिन कई पहलू अधूरे रह जाते हैं इस कारण दर्शकों को संतोष नहीं मिलता

एक टिप्पणी लिखें