22.6% एक दिन में—1987 का सबक जो आज भी पीछा नहीं छोड़ता
एक ही ट्रेडिंग सत्र, और Dow Jones Industrial Average 22.6% नीचे—508 अंक की गिरावट और दुनिया से 1.71 ट्रिलियन डॉलर की दौलत उड़नछू। इसे यूं ही ब्लैक मंडे नहीं कहा गया। 19 अक्टूबर 1987 की ये गिरावट उस वक्त आई जब साल की पहली सात महीनों में Dow 44% तक चढ़ चुका था। तेज़ी इतनी तेज़ थी कि बुलबुले की फुसफुसाहटें सुनाई देने लगी थीं।
क्रैश का रोलर-कोस्टर एशिया से शुरू हुआ। न्यूज़ीलैंड का बाजार 60% तक टूट गया और बेचैनी लहर की तरह समय-क्षेत्रों को पार करती हुई अमेरिका पहुंची। सोमवार की सुबह फ्यूचर्स बाजार डगमगाए, और कैश मार्केट खुलते ही बिकवाली का सैलाब आ गया। जितना भाव गिरा, उतनी तेज़ी से और बिकवाली ट्रिगर हुई।
कारण कई थे और सब मिलकर एक ही दिशा में धक्का दे रहे थे। सबसे पहले, कीमतें ऊंची थीं और करेक्शन की जमीन तैयार थी। दूसरे, उस दौर की ‘कंप्यूटरीकृत ट्रेडिंग’—प्रोग्राम ट्रेडिंग—ने गिरावट को गुना कर दिया। तीसरे, पोर्टफोलियो इंश्योरेंस नाम की रणनीति, जो गिरते दामों पर S&P 500 फ्यूचर्स बेचकर नुकसान सीमित करने का दावा करती थी, उलटा आग में घी बन गई—स्टॉक्स गिरते, तो फ्यूचर्स में और बिकवाली, और उससे स्टॉक्स पर दबाव और बढ़ता।
मैक्रो मोर्चे पर भी संकेत अच्छे नहीं थे। मध्य-अक्टूबर में अमेरिका का व्यापार घाटा उम्मीद से बड़ा निकला। डॉलर फिसला और वाशिंगटन से संदेश आए कि डॉलर को और कमजोर करने की कवायद हो सकती है ताकि निर्यात को सहारा मिले। तेल, ब्याज दरें और मुद्रास्फीति—तीनों पर अनिश्चितता थी। वीकेंड ने राहत के बजाय बेचैनी ही बढ़ाई।
उस समय सर्किट ब्रेकर नहीं थे, मार्केट माइक्रोस्ट्रक्चर कमज़ोर था, और ऑर्डर-बुक की गहराई जल्द गायब हो जाती थी। फर्श पर खड़े स्पेशलिस्ट और मार्केट मेकर ऑर्डर फ्लो में दब गए। नतीजा—एक कैस्केड, जिसमें हर टिक नीचे जाने पर अगला डाउनटिक लगभग तय हो चुका था।
फेडरल रिजर्व ने तब तरलता का नल खोलकर सिस्टम को संभाला। यह अनुभव आगे चलकर नीति-निर्माताओं के लिए पाठ बना कि संकट की घड़ी में ‘लिक्विडिटी’ ही पहला सहारा है। बाजार ने चोट खाई, पर वित्तीय सिस्टम टूटने से बच गया और समय के साथ सूचकांक संभल भी गए।

आज का संदर्भ: टैरिफ, टेक और तरलता—कहां समानता, कहां फर्क
अब नज़र आज पर। आयात पर व्यापक टैरिफ लगाने की धमकियां—डोनाल्ड ट्रम्प की संभावित नीतियों का यही केंद्रीय संदेश—ने बाजार की नसों पर पकड़ मजबूत कर दी है। व्यापार घाटा, मुद्रा का मूल्य, आपूर्ति श्रृंखलाएं और कॉरपोरेट मार्जिन—ये सारी बहसें 1987 जैसा माहौल याद दिलाती हैं। अगर टैरिफ ऊंचे और व्यापक हुए, तो आयातित कच्चे माल महंगे, उपभोक्ता कीमतें ऊपर, और मुद्रास्फीति का दबाव फिर सिर उठा सकता है। फिर केंद्रीय बैंक कड़े हो सकते हैं, और वैल्यूएशन को दोहरा दबाव झेलना पड़ेगा—कम मुनाफा और ज्यादा डिस्काउंट रेट।
मगर 1987 और आज में बड़ा फर्क भी है। अब सर्किट ब्रेकर हैं—7%, 13% और 20% की गिरावट पर बाजार कुछ देर के लिए रुकता है ताकि पैनिक की जंजीर टूटे। क्लियरिंगहाउस मार्जिनिंग बेहतर है, रिस्क-चेक्स रीयल-टाइम हैं, और लिक्विडिटी बैकस्टॉप्स पर केंद्रीय बैंकों का हाथ ज्यादा मजबूत है। 2008 के वित्तीय संकट और 2020 के महामारी-काल में फेड और अन्य केंद्रीय बैंकों ने बॉन्ड खरीद, क्रेडिट सुविधाएं, स्वैप लाइंस और बैलेंस शीट के सहारे दिखाया कि तरलता कैसे दी जाती है।
फिर भी, मनोविज्ञान वही रहता है। डर, लालच और झुंड—ये तीनों फैक्टर आज भी उतने ही ताकतवर हैं। 1987 में पोर्टफोलियो इंश्योरेंस ने गिरावट बढ़ाई थी; आज एल्गो और हाई-फ्रीक्वेंसी ट्रेडिंग कुछ स्थितियों में वैसा ही असर दिखा सकते हैं। 6 मई 2010 के ‘फ्लैश क्रैश’ ने दिखाया कि माइक्रोस्ट्रक्चर के छोटे झटके कैसे बड़े गिरने में बदल जाते हैं। 2018 में वोलैटिलिटी प्रोडक्ट्स (VIX ETNs) का ‘वोल्मगैडन’ एपिसोड और 2020 में मार्च के सर्किट ब्रेकर—ये याद दिलाने को काफी हैं कि तकनीक सुरक्षा देती है, पर संवेदनशील भी बनाती है।
आज का बाजार वैल्यूएशन के लिहाज से 1987 जैसी बेकाबू रैली के ठीक बाद नहीं है। हाल की गिरावटें ज्यादा चरणबद्ध रही हैं। कॉरपोरेट बैलेंस शीट, खासकर बड़े टेक और कैश-रिच कंपनियों की, अपेक्षाकृत मजबूत हैं। बैंकिंग सिस्टम 2008 के बाद से बेहतर पूंजीकृत है। पर नए जोखिम भी हैं—मेगा-कैप टेक में अत्यधिक एकाग्रता, पैसिव इनफ्लो का प्रभाव, जीरो-डे ऑप्शंस (0DTE) का इंट्राडे ‘गैमा’ दबाव, और ETFs के जरिए सेकंडों में सेक्टर-व्यापी आउटफ्लो का चेन-इफेक्ट।
टैरिफ बहस का दूसरा पहलू मुद्रा बाज़ार है। अगर व्यापार नीतियों से डॉलर मजबूत होता है, तो उभरते बाजारों से पूंजी बाहर जा सकती है, डॉलर-उधार लिए कर्जदारों पर बोझ बढ़ सकता है, और डॉलर-प्राइस्ड कमोडिटीज जैसे तेल के झटके स्थानीय मुद्रास्फीति को चोट पहुंचा सकते हैं। अगर डॉलर कमजोर होता है, तो आयात महंगे पड़ सकते हैं और मुद्रास्फीति का दूसरा रास्ता खुल सकता है। 1987 में डॉलर की कमजोरी एक ट्रिगर थी; आज भी डॉलर की चाल ‘रिस्क-ऑन/रिस्क-ऑफ’ की धुरी बनी हुई है।
सवाल ये नहीं कि ‘ब्लैक मंडे 2.0’ होगा या नहीं; सवाल ये है कि किन शर्तों के मेल से बड़ा झटका संभव है। इतिहास बताता है, बड़े क्रैश अक्सर एक कारण से नहीं आते—वे कई नेगेटिव फैक्टर्स के एक साथ आने से बनते हैं। मान लीजिए, व्यापक टैरिफ बाजार को महंगाई-डर की तरफ धकेलते हैं, उसी बीच कच्चा तेल ऊंचा जाता है, और किसी सिस्टमेटिक हिस्से—मान लें, शॉर्ट-वोल रणनीतियों या लीवरेज्ड फंडिंग—में दबाव उभरता है। तब एल्गो की एकतरफा बुक, लिक्विडिटी की कमी और फोर्स्ड डी-लेवरेजिंग एक साथ काम कर सकते हैं।
नीति मोर्चे पर, फर्क ये कि अब फेड, ईसीबी, बैंक ऑफ जापान और अन्य के पास टूलकिट बड़ी है। रेपो विंडो, क्रेडिट फैसिलिटीज, मार्केट-मेकिंग सपोर्ट—ये सब तुरन्त सक्रिय हो सकते हैं। 2020 में अमेरिकी बाजार चार बार सर्किट ब्रेकर पर रुके, फिर भी कुछ हफ्तों में लिक्विडिटी लौट आई। यह इशारा है कि संस्थागत ढांचा मजबूत हुआ है। लेकिन ढांचे की मजबूती, कीमतों की स्थिरता की गारंटी नहीं है—शॉक्स आते हैं, और आते रहेंगे।
भारत और एशिया के निवेशकों के लिए कहानी की स्थानीय कड़ी भी साफ है। टैरिफ-तनाव बढ़े, तो आईटी और मैन्युफैक्चरिंग सप्लाई चेन्स पर असर होगा। रुपया-दौलर की चाल FPI फ्लो पर असर डालेगी—डॉलर मजबूत, तो उभरते बाजारों से निकासी तेज़; डॉलर कमजोर, तो कमोडिटी इम्पोर्ट महंगे। ऑटो-एंसिलरी, इलेक्ट्रॉनिक्स और मेटल्स जैसे सेक्टर टैरिफ-संवेदनशील हैं; वहीं घरेलू डिमांड-ड्रिवन सेक्टर थोड़े शील्डेड दिख सकते हैं।
रिटेल निवेशक क्या देखें? सबसे पहले, ट्रेड पॉलिसी के आधिकारिक बयान—टैरिफ की रेंज, कवरेज और टाइमलाइन। दूसरा, डॉलर इंडेक्स और बांड यील्ड्स—ये दोनों वैल्यूएशन के थर्मामीटर हैं। तीसरा, कमाई के अनुमान—अगर अर्निंग्स रीविजन डाउनसाइड में जाती है, तो P/E अकेले कहानी नहीं बदलता। चौथा, वोलैटिलिटी इंडेक्स—डर की कीमत वहीं दिखती है। और पांचवां, लिक्विडिटी—फंडिंग मार्केट्स, क्रेडिट स्प्रेड्स, और ETF आउटफ्लो के संकेत।
पोर्टफोलियो की सेहत के लिए कुछ सामान्य अनुशासन काम आते हैं। लीवरेज सीमित रखें, एसेट-एलोकेशन में विविधता रखें, कैश बफर रखें ताकि पैनिक-सेलिंग से बचें, और लंबी अवधि का निवेश शेड्यूल कायम रखें—जैसे SIP या चरणबद्ध खरीद। अगर हेजिंग का ज्ञान और साधन हैं, तो जोखिम-प्रबंधन की बेसिक स्ट्रैटेजी—जैसे प्रोटेक्टिव पुट या सेक्टर-रोटेशन—खेले जा सकते हैं।
क्या ‘ब्लैक मंडे 2.0’ की हेडलाइन बन सकती है? अभी कहना जल्दबाजी होगा। बाजार अभी किसी एकतरफा, अस्थिर बुल रन के तुरंत बाद नहीं खड़ा, और संस्थागत सुरक्षा जाल भी बड़ा है। पर ट्रिगर्स मौजूद हैं—टैरिफ, मुद्रास्फीति, भू-राजनीति, एल्गो-लिक्विडिटी। इतिहास तुक करता है—और जब कई नकारात्मक सुर एक साथ उठते हैं, धुन अक्सर कर्कश हो जाती है। समझदारी यही है कि अतीत से सीखें, संकेतों को पढ़ें, और जोखिम-प्रबंधन को आदत बनाएं।
आखिरकार, बाजार उम्मीद और अनिश्चितता का बारीक संतुलन हैं। नीतिगत शोर बढ़ेगा तो वोलैटिलिटी बढ़ेगी। कभी-कभी गिरावटें तेज़ होंगी, कभी धीरे। फर्क इस बात से पड़ता है कि आप उस शोर में कितना अनुशासित रहते हैं, और किस नजर से ‘जोखिम’ को देखते हैं—समस्या के रूप में, या कीमत पर उपलब्ध अवसर के रूप में।
1987 ने सिखाया कि अचानक और बड़ा झटका संभव है। 2008 और 2020 ने दिखाया कि सिस्टम बचाया भी जा सकता है। आज की कहानी उन्हीं दो सीखों के बीच कहीं लिखी जा रही है—नीति के मोड़ों, एल्गोरिद्म की रफ्तार और निवेशकों की धड़कनों से।